Saturday, September 07, 2024

 

 

लोकतन्त्र की अगली क्रान्ति- आनुपातिक प्रतिनिधित्व

-    चन्द्र भूषण चौधरी

भारत की लोक सभा, राज्यों की विधान सभाएं तथा बहुतेरी स्थानीय निकायें  ब्रिटेन जैसी चुनाव पद्धति से बनती हैं; उसे अंग्रेजी मे “First Past The Post (FPTP)” या “Winner Takes All” कहा जाता है० भारतीय राजनीति शास्त्रियों और अन्य बौद्धिकों की विडंबना है कि देश में लोकतंत्र आने के 75 साल बाद भी उन्होनें हिन्दी में (संभवतः अन्य भाषाओं में भी) इन दो अंग्रेजी नामों के लिए कोई सुगम शब्द या मुहाबरा नहीं बनाया है० इस लेख में मैं इन अंग्रेजी मुहाबरों के लिए एक नया भारतीय मुहाबरा “बहुमत का सर्वजय” इस्तेमाल कर रहा हूँ० ये शब्द इस तथ्य को उजागर करते   हैं कि हरेक चुनाव क्षेत्र (Electoral Constituency) में सर्वाधिक मत पाने वाले उम्मीदवार को पूरे- पूरे मतदाताओं का प्रतिनिधि बनने का हक़ यह FPTP (बहुमत का सर्वजय) पद्धति दे देती है; भले ही उसे पचास, तीस, बीस या उससे भी कम वोट आए हों०

राँची शहर के नगर निगम चुनावों मे कई बार उप महापौर पद के सीधे चुनाव मे 70- 80 प्रत्याशी तक खड़े हुए हैं० उनमे विजेता को दस प्रतिशत से भी कम मत आते थे; पर वह पूरे सौ प्रतिशत मतदाताओं का शासक बन गया०

इस लेख मे हम लोकतान्त्रिक शासन पद्धति के केवल एक प्रकार- “संसदीय प्रणाली” के बारे में विमर्श करेंगे० कई देशों मे लागू “राष्ट्रपति शासन”, “राजतन्त्र” और “तानाशाही” जैसी प्रणालियों  को हम विषय से अलग रखते हैं०

आधुनिक संसदीय शासन प्रणाली की शुरुआत United Kingdom (ब्रिटेन) मे वर्ष 1707 में हुई थी० उसे Westminster Model कहा जाता है० उसके बाद इस व्यवस्था में उत्तरोत्तर ज्यादा लोकतान्त्रिक बनाने के सुधार होते रहे हैं० अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदियों में यूरोप के ज्यादातर देशों ने इस पद्धति को अपना लिया० उस दौरान एशिया और अफ्रीका के सारे देश उपनिवेश ही थे; इसलिए उनमे लोकतन्त्र था ही नहीं०

अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी मे यूरोप और अमेरिका के कई राजनीतिक विचारकों, गणितज्ञों, वकीलों और कार्यकर्ताओं ने वेस्टमिन्सटर पद्धति की खामियों को सुधारने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation PR) के कई प्रकारों के नमूने और चुनाव प्रक्रिया के प्रस्ताव रखे० एक गणितज्ञ कार्ल आन्द्रे के मॉडेल पर आधारित आनुपातिक चुनाव प्रणाली के द्वारा पहली बार 1855 में डेनमार्क देश की संसद के चुनाव किए गए०  पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बीच कई यूरोपीय देशों ने अपनी चुनाव प्रणाली को आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (PR) मे बदला० अंग्रेजी भाषी बौद्धिकों वाले और ब्रितानी शासन से स्वतंत्रता पाए देशों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व नगण्य ही अपनाया गया है० सं० राज्य अमेरिका की संघीय और राज्यों की संसद “बहुमत सर्वजय (FPTP)” पद्धति से चुनी जाती है० उसके कुछ नगर शासनों मे कौंसिल के लिए लगातार आनुपातिक पद्धति से चुनाव होते रहे हैं० इनमे दो प्रमुख शहर कैंब्रिज (मैसाच्युसेट्स) और पेओरा (इलिनॉय) विश्वविद्यालय शहर हैं, जहाँ सर्वाधिक शिक्षित नागरिक रहते हैं !

     अब तक 90 (नब्बे) देश अपने संसद (Lower House) के चुनाव में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) की चुनाव प्रणाली अपना चुके  हैं० इनमे यूरोप के 33 देश और 57 एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अमेरिका महादेशों के हैं०

     “बहुमत का सर्वजय (FPTP)” पद्धति की सबसे बड़ी खामी है कि उसमे कई दलों के प्राप्त मतों और शासक सदन (संसद, विधान सभा, नगर कौन्सिल इत्यादि मे आए प्रतिनिधियों (सीटों) की संख्या
मे लाभकारी या नुकसान देह विषमता होती है० भारत के पिछले आम चुनावों के नतीजों को यहाँ तालिका संख्या 1, 2 और 3 के आंकड़ों को देख कर इस विषमता को हम समझेंगे०

तालिका-1
लोक सभा चुनाव 2019 के नतीजे
----------------------------------------

 

क्रम सं

पार्टी

प्राप्त मत %

प्राप्त सीट

1

भा० ज० पा०

37.36%

303 (55.8%)

2

काँग्रेस

19.66%

52 (9.6%)

3

तृणमूल काँग्रेस

4.1%

22 (4%)

4

बसपा

3.63%

10 (1.85%)

5

माकपा

1.7 %

3 (0.55%)

6

जदयू

1.46%

11 (1.9%)

7

सपा

2.55%

5 (0.92%)

8

राजद

1.08%

0 (0%)

9

छोटे दल समूह

22.22%

56 (10.15%)

             

इस चुनाव में भाजपा को आए मतों के अनुपात से केवल 207 सीटें मिलनी चाहिए थी० पर उसे बिना कमाए ही 96 ज्यादा सीटें मिल गई० इसकी वजह से भाजपा सदन में वाजिब अल्पमत मे होने की जगह बहुमत हासिल करने वाली पार्टी बनकर शासन करने का अधिकार ले बैठी० वहीं गलत प्रणाली  के कारण सबसे बडे विपक्षी दल काँग्रेस को उसके आनुपातिक अधिकार 109 सीटों की जगह केवल 52 सीटें मिली० अर्थात उसे 57 सीटों का गलत नुकसान हुआ०
तालिका दर्शाती है कि सभी अन्य विपक्षी दलों को भी  कमोबेश ऐसा ही नुकसान हुआ था० पर भा ज पा  के सहयोगी दल ज द यू को भाजपा की ही तरह वोट अनुपात से ज्यादा सीटें मिली०

तालिका- 2
दिल्ली विधान सभा चुनाव 2020

---------------------------------------

क्र०सं०

पार्टी

प्राप्त मत %

प्राप्त सीट

1

आम आदमी पार्टी

53.57%

62 (88.57%)

2

भा ज पा

38.51%

8 (11.43%)

3

काँग्रेस

4.26%

0 (शून्य)

 

यह तालिका “बहुमत सर्वजय (FPTP) के विषमतम नतीजों के अलोकतांत्रिक दुष्प्रभाव को डराने की हद तक दिखाता है० इस चुनाव में भाजपा के 27% और काँग्रेस के 4% मत बेकार हो गए० आम आदमी पार्टी को बेवजह अनधिकृत 24 अतिरिक्त सीटें मिल गई० चुनाव प्रणाली ने गुप्त रूप से 31% मतदाताओं की इच्छा को चोरी से उनके विरोधियों के खाते में डाल दिया०

तालिका- 3
लोक सभा चुनाव 1984
----------------------------

क्र० सं०

पार्टी

प्राप्त मत%

प्राप्त सीट

1

काँग्रेस

49.1%

404 (78%)

2

भा ज पा

7.74%

2 (0.4%)

3

जनता पार्टी

6.89%

10 (2%)

 

1950, 60 और 70 के दशकों में लगातार लोक सभा और विधान सभाओं में काँग्रेस को मौजूद चुनाव प्रणाली की वजह से सदनों में बहुमत मिला और वह सत्तासीन रही थी० 1984 के चुनाव में काँग्रेस को 49.1% मत पाकर तथा साफ बहुमत का अपात्र होकर भी अतिरिक्त 201 सीटों का फायदा मिला और संसद में उसके दो तिहाई सदस्य हो गये थे० उसकी बदौलत राजीव गांधी की सरकार ने कई संविधान संशोधन किए० इस घटना से समझें कि इस प्रणाली का चलते रहना संविधान के अक्षुण्ण रहने पर भी खतरा है० 

“बहुमत का सर्वजय (FPTP)” चुनाव प्रणाली मतदाताओं की बड़ी संख्या के “अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार” को छीन कर उनके मतों पर डाका डालती है; जबरन उनकी सहमति को अनचाहे उम्मीदवार के खाते में या कहें कि कचरे में डाल देती है० यह मतदाता के मौलिक लोकतान्त्रिक अधिकार को छीन लेने का आपराधिक कृत्य है०

देश के विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पूरा करने का वादा कर बने क्षेत्रीय दलों के अपने क्षेत्र- प्रदेश में जीतने की और बिखरे हुए मतों की वजह से  देश व्यापी विचारधाराओं वाली पार्टियों की वहाँ हारने की संभावना “बहुमत का सर्वजय (FPTP)” पद्धति में ज्यादा रहती है०  तालिका-1 में माकपा, बसपा और काँग्रेस के नतीजों को देखकर यह समझा जा सकता है० क्षेत्रीय विचारधाराओं को बढ़ावा देकर यह पद्धति कई केंद्रापसारी (Centrifugal) शक्तियों को प्रश्रय देती है और राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है०

शासन में भागीदारी की कम रुचि या परंपरा और कम सक्षमता वाली जमातों यथा औरतें, दलित, किसान, मजदूर, शैक्षणिक कमजोर, अल्पसंख्यक वगैरह वर्गों को चुनाव द्वारा सदन मे पहुँचने के प्रयास को यह प्रणाली कमजोर करती है० उन्हे भागीदारी पाने के पहले एक पहाड़ी जैसी ऊंचाई को पार करना अनिवार्य होता है० भारतीय संसद की 17 वीं लोक सभा मे केवल 78 (15%) और राज्य सभा में 24 (13%) महिला सांसद हैं० इस लोक सभा में केवल 27 (5%) मुस्लिम सांसद हैं जबकि उनकी आबादी 15% है०

बहुमत सर्वजय (FPTP)” प्रणाली में प्रत्येक सीट जीतने के लिए ज्यादा सीटें पाने वाले वाले दलों की तुलना में कम सीटों वाले दलों को कहीं ज्यादा वोट लाना अनिवार्य होता है० 2019 के लोक सभा चुनाव में झारखण्ड के आँकड़े देखें० उस में भाजपा को मिले 11 सीटों में प्रत्येक सीट 7 लाख मत से आए० वहीं अल्पमत में रहे काँग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को एक- एक ही सीटें मिली थी० उन्हे हरेक सीट क्रमशः 23 लाख और 17 लाख मतों से मिले० “बहुमत सर्वजय (FPTP)” के हरेक चुनाव के नतीजे काफी कुछ ऐसे ही आँकड़े दिखाते हैं०

“आनुपातिक प्रतिनिधित्व- PR” वर्तमान चुनाव की इन विसंगतियों (Inconsistencies), पहाड़ी जैसा आरंभिक अवरोध और जुआ खेल (Gambling) को खत्म कर हरेक दल / संगठित वर्ग को उसके मतों के अनुपात में सदन में वाजिब सीटें दिलाती है० शासन के केन्द्रीय सदन लोक सभा, राज्यों की विधान सभाएं और विकेंद्रीकरण के बाद जिला परिषद, नगर निगम, अन्य नगर निकाय, प्रखण्ड समिति, और ग्राम पंचायत; हरेक स्तर पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation- PR) चुनाव प्रणाली द्वारा विधायिका सदन / कौंसिल को चुनना ज्यादा लोकतान्त्रिक और बेहतर होता है०

अन्य स्वैच्छिक, पेशेवर (किसान, मजदूर, वकील, डॉक्टर, छात्र, सहकारिता, व्यापारी वगैरह) संघों और राजनीतिक दलों के आंतरिक चुनावों में भी आनुपातिक प्रणाली से चुनाव किए जाते हैं०

मतदाताओं की पसंद के अनुपात में सदन के सदस्यों के चुनाव अर्थात आनुपातिक प्रतिनिधित्व (PR) लागू करने के कई तरीके तैयार किए गए हैं० जनसंख्या का आकार, मतदाताओं की शिक्षा/  प्रशिक्षण का स्तर, इलाकों की जन सांख्यिकीय विविधता (Demographic Differences), राजनीतिक पार्टियों के प्रसार क्षेत्र, आरक्षण के प्रावधान; इन सभी परिस्थितियों के लिए आनुपतिक प्रतिनिधित्व (PR) के तरीके बन चुके हैं० किसी प्राधिकृत कॉमिटी और संसद- सरकार द्वारा भारत की लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व (PR) द्वारा चुनाव का समुचित तरीका चुना जाएगा० राज्य सरकारें स्थानीय निकायों के लिए और स्वैच्छिक संगठन अपने लिए सबसे उपयुक्त तरीके चुनेंगे० आनुपातिक प्रतिनिधित्व में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण रखना संभव है० वह वर्तमान रूप में ही चुनाव क्षेत्रों को आरक्षित कर तथा पार्टी लिस्ट में आरक्षण रोस्टर प्रथा का इस्तेमाल कर हो सकता है०

आनुपातिक प्रतिनिधित्व (PR) का उद्देश्य जनता के हरेक वर्ग, विचारधारा, जाति, नस्ल, लिंग वाली जमातों को उनकी कुल आबादी के अनुपात में विधायिकाओं और शासक सदनों में सदस्यता का अधिकार देना है०

आनुपातिक प्रतिनिधित्व (PR) की चुनाव प्रणालियाँ ऐसे वर्गों,  जिनकी ऐतिहासिक कारणों से शासन मे कम रुचि, कम सक्षमता, आर्थिक विपन्नता, शिक्षा का अभाव यथा औरतें, दलित, आदिवासी, अल्पमत वर्ग वगैरह को संसद, विधान सभाओं तथा अन्य विधायिका/ शासक सदनों तक पहुँचने और सक्रिय भागीदारी करने में समर्थ  करती है०  

स्वीडन में 1950 में  औरत सांसदों की संख्या नगण्य थी० बिना किसी आरक्षण के ही लगातार आनुपातिक प्रणाली के कारण अब स्वीडन की संसद मे 45% महिला सांसद हैं० महिला सांसदों की संख्या में ऐसी ही बढ़त यूरोप के अन्य देशों में भी है, जहां आनुपातिक चुणाव प्रणाली पाँच- सात दशकों से लागू है० एशिया के मुस्लिम बहुल देश इंडोनेशिया की संसद में 1999 में केवल 9% औरतें थी० वह 20 वर्षों तक आनुपातिक पद्धति लागू रहने के बाद 2019 में बढ़कर 21% हो गई० हालांकि वहाँ दलों को अपने टिकटों में 30% औरतों को देने का कानून भी हाल मे बना है० मुस्लिम बहुल देश तुर्की की आनुपातिक प्रतिनिधित्व से चुनी संसद में बिना किसी आरक्षण के ही औरत सांसदों की संख्या 2002 में केवल 4.4% की तुलना में 6 चुनावों के बाद 2023 में 20% हो गई० नब्बे देशों में चल रही आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली का विश्लेषण बताता है कि उसकी वजह से संसद/ विधायिकाओं में वंचित वर्गों, जातियों, कबीलों वगैरह की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ कर उनकी आबादी के अनुपात में हो जाने की पूरी संभावना है०    

  भारत के चार पड़ोसी देशों की संसद अब आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से चुनी जाती है० ये हैं श्रीलंका, नेपाल, थाइलैंड और इंडोनेशिया० बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि भारत के राजनीतिकों, कानूनविदों, अकादमिकों, स्तंभकारों, तथाकथित Think Tanks और चुनाव विश्लेषकों ने देश के इतने करीब होने वाली लोकतान्त्रिक क्रांतियों का विश्लेषण कर भारत के लिए किसी मॉडेल का सुझाव नहीं दिया०  हाँ, 1975 में जे पी की पहल से बनी जस्टिस तारकुंडे कमिटी, 1977 में मुख्य चुनाव आयुक्त शकधर  और 1999 में विधि आयोग (Law Commission) ने आ० प्र०(PR) पर सरकार को एक- एक रिपोर्ट जरूर दी थी० पर सरकारों, संसद और ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इन रपटों पर ध्यान नहीं दिया० देश की मीडिया ने भी हरेक चुनाव में कई दिनों तक विश्लेषण चलाने के बावजूद आ० प्र०(PR) पर रत्ती भर ध्यान नहीं दिया० पर कुछ दलों- कम्युनिस्ट पार्टी (मा०), द्र० मु० क०, सी पी आइ और समाजवादी जन परिषद ने आ० प्र०(PR) के पक्ष में प्रस्ताव पारित किए हैं० पर इस मुद्दे पर किसी दल ने कभी प्रकाशन, जन जागरण या आंदोलन नहीं किया० राज्य स्तर पर सत्ताधारी दलों द्रमुक और CPI(M) में किसी ने अपने शासन काल में अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले जिला, नगर, ग्राम पंचायत या अन्य निकायों मे आ० प्र० (PR) प्रणाली की शुरुआत नहीं की है० 

नेपाल की संविधान सभा पिछले दशक में नया संविधान बना रही थी० उसमे “आनुपातिक प्रतिनिधित्व” के अंगीकृत होने के बाद वहाँ पिछले दो संसदों के चुनाव इस पद्धति से हुए हैं० अस्थिरता से ग्रस्त नेपाल की राजनीति में इस नई प्रणाली के लागू होने के बाद वहाँ की संसद सुस्थिर हो गई है० वहाँ लोकतन्त्र जड़ पकड़ चुका है० पर भारत में उसकी कोई चर्चा नहीं है०

     भारत के संविधान में अपनाई गई राजनीतिक चुनाव क्षेत्रों (constituencies) मे आरक्षण के प्रावधान शामिल करने का उद्देश्य भी वंचित समूहों का सशक्तिकरण ही था० (इस लेख में हम “नौकरियों में आरक्षण” विषय पर चर्चा नहीं कर रहे हैं)० पिछले सत्तर साल का अनुभव बताता है कि यह आरक्षण व्यवस्था सही स्तर तक वंचितों का सशक्तिकरण करने में अक्षम है० साथ ही यह आरक्षण व्यवस्था केवल दो चुने गए नृजातीय (Ethnic) समूहों- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Castes & Scheduled Tribes) के हित में ही बहुत थोड़ी सी मददगार है० वह उनके लिए केवल कुछ आवंटित चुनाव क्षेत्रों मे रहने वाले इन वंचितों का ही थोड़ा सशक्तिकरण कर पाती है० सारे देश के अन्य चुनाव क्षेत्रों में रहने वाले उन्ही वंचित समूहों को यह आरक्षण व्यवस्था सीधा हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं दे पाती है० सत्तर साल के अनुभव बताते हैं कि नृजातीय समूहों (Ethnic Groups) के अलावा अन्य प्रकार के वंचित समूह भी समाज में हैं; यथा किसान, अति गरीब, मजदूर, सभी जाति- धर्म की औरतें, भाषायी अल्पसंख्यक, देहातवासी, धार्मिक अल्पसंख्यक वगैरह० ये वंचित समूह भी अनेक चुनाव क्षेत्रों मे बिखरे हुए हैं० इस विखराव की वजह से “बहुमत सर्वजय- FPTP” प्रणाली में वे संगठित होकर भी संसद, विधायिकाओं, अन्य सदनों तक नहीं पहुँच सकते हैं० आनुपातिक प्रतिनिधित्व (PR) के लागू होने पर भागीदारी के इच्छुक और पार्टी के रूप में संगठित समूह उन सदनों तक पहुँच कर सरकार या विपक्ष के रूप में लगातार पाँच साल अपनी आवाज और आकांक्षाओं की दस्तक देते रहते हैं० किसी पार्टी के अन्दर भी दवाब गुट के रूप में वे सदन और सरकार में भागीदारी का अपना हिस्सा हासिल कर सकते हैं०      

आनुपातिक प्रतिनिधित्व लाने के लिए चुनावों के चार तरीके ज्यादा प्रचलित हैं, पर इनके अलावा भी कुछ तरीके सुझाए गए और लागू भी हैं० इस पद्धति मे हरेक पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ती है; पार्टियों के गठबंधन चुनाव नहीं लड़ते०  इस लेख मे हम केवल इन चारों की तफ़सील ही देखेंगे० ये चार हैं-

1.  पार्टी लिस्ट प्रणाली (Party List System).    
यह पद्धति देश  / प्रदेश / जिला जैसे पूरे इलाके को उसके चुनाव के लिए एक ही चुनाव क्षेत्र मानती है० इसमे छोटे इलाकों के क्षेत्रवार (Constituency Wise) प्रत्याशी नहीं होते हैं०  चुनाव प्रचार के पहले हरेक दल प्रस्तावित उम्मीदवारों की वरिष्ठता वार अपनी सूची निर्वाचन आयोग को दे देता है० पूरे इलाके/ क्षेत्र में पार्टियों द्वारा पाए मतों के अनुपात में विधायिका सदन की सीटें हरेक दल को मिल जाती है० व्यावहारिकता की वजह से बहुत कम (Less Than Cut Off Level) वोट पाने वाली पार्टियों को कोई सीट नहीं मिलती० “बहुत कम (Cut Off)” का निर्धारण बड़ी जनसंख्या के लिए 1% से क्रमशः छोटी जनसंख्या के लिए 5% तक जा सकता है० ऐसे Cut Off के निर्धारण का तर्क है कि बड़ी संख्या में मतदाताओं को अधिकार से वंचित न किया जाए; सदन के एक सीट का विभाजन असंभव है और सदन मे सीमित संख्या मे ही सीटें हैं०

इस पद्धति को लागू करने वाले कुछ देश हैं- औस्ट्रिया, नेदरलैंड, तुर्की (सभी यूरोप के); श्रीलंका, इंडोनेशिया (एशिया के), अर्जेन्टीना (द० अमेरिका) और दक्षिण अफ्रीका (अफ्रीका)०  

2.   मिश्रित सदस्य प्रणाली (Mixed Member PR- MMR)-
अपेक्षया बड़ी आबादी वाले देशों / प्रदेशों के लिए यह प्रणाली ज्यादा व्यावहारिक तथा क्षेत्रीय प्रतिनिधियों को अपने मतदाताओं के प्रति जिम्मेदार रखने वाली मानी जाती है० इसमे “बहुजन सर्वजय (
FPTP)” पद्धति से पूरे देश / प्रदेश को चुनाव क्षेत्रों में बाँट जाता है० सदन मे इनके अलावा और सीटें होती हैं, जिन्हे वोट के अनुपात में चुनाव के बाद आवंटित किया जाता है० चुनाव में मतदाता को दो मतपत्र (Ballot Papers) मिलते हैं; साथ ही दो मतपेटियाँ होती है० उनमे एक मत पहली पेटी में उसी क्षेत्र के किसी उम्मीदवार के पक्ष में गिरता है० उनकी गिनती में सबसे ज्यादा वोट लाने वाला उम्मीदवार विजेता घोषित होता है० दूसरी पेटी में एक पूर्वघोषित बड़े क्षेत्र (पूरा देश प्रदेश या उसका एक बड़ा हिस्सा) में चुनाव लड़ने वाले किसी दल के पक्ष में मतदाता अपना वोट डालता है० उस पूरे बड़े इलाके में भाग लेने वाले दलों में हरेक के अपने सारे मत जोड़ लिए जाते हैं० उस बड़े इलाके के लिए आवंटित सभी सीटों को प्रत्येक पार्टी के पाए कुल मतों के अनुपात में दे दिया जाता है० जर्मनी की राष्ट्रीय संसद (Bundestag) के लिए पिछले सात दशकों से इसी प्रणाली से चुनाव होते रहे हैं० न्यूजीलैंड, थाईलैंड, नेपाल, बोलीविया, लेसोथो में भी यह मिश्रित सदस्य प्रणाली (MMR- PR) प्रणाली अपनाई गई है०

3.  Single Transferable Vote (STV) प्रणाली-
यह यद्यपि दशकों से सुझाई हुई है, पर राष्ट्रीय स्तर पर इसे केवल दो छोटे देशों आयरलैंड और माल्टा ने अपनाया है० इसे पार्टीयुक्त या बिना पार्टियों के; दोनों किस्म के चुनावों मे प्रयुक्त किया जा सकता है० यह उच्च शिक्षित / प्रशिक्षित   मतदाताओं के छोटे निकायों, पेशेवर संगठनों, उच्चतर संसद सदनों (राज्य सभा, विधान परिषद, कुछ देशों के सीनेटों) के लिए उपयुक्त है० यहाँ हम इसकी प्रक्रिया की तफ़सील नहीं बताएंगे०

4.  दल विहीन चुनावों में बहु सदस्य वाले चुनाव क्षेत्रों का प्रयोग०
नगर निगम, अन्य नगर निकाय, ग्रामीण इलाकों के बड़े निकाय (प्रखण्ड समिति, जिला परिषद), बड़े सहकारिता संघ, मजदूर किसान संघ, छात्र संघ इत्यादि बहुधा राजनीतिक दलों की पहचान से सदस्यों को दूर रखना चाहते हैं० उनके द्वारा यह पद्धति अपनायी जाती है०
इसमें पूर्व निर्धारित प्रतिनिधि संख्या के लिए बहुसदस्यों (आम तौर पर पाँच से दस प्रतिनिधियों हेतु) वाले  अपेक्षया बड़े चुनाव क्षेत्र बनाए जाते हैं० हरेक मतदाता अपना एकमात्र वोट किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में डालता है० मतगणना कर सबसे ज्यादा मत पाने वाले उम्मीदवारों की उतनी पूर्व निर्धारित संख्या को निर्वाचित घोषित किया जाता है० इसके कारण समाज के (अल्प संख्यक सहित) विभिन्न जमातों/ विचारधाराओं के लोग भी प्रतिनिधि बन पाते हैं० साथ ही बहुमत सर्वजय (
FPTP) जैसी प्रणाली में हो रही बहुत मतों की बर्बादी (Loss of Franchise) भी रुक जाती है०

मेरी  निश्चित और सुविचारित मान्यता है कि लोक सभा के लिए भारत जैसी विशाल जनसंख्या और क्षेत्रीय विविधता वाले देश में “मिश्रित सदस्य प्रणाली (Mixed Member PR- MMP)” ही उपयुक्त है० चुनाव के समय इसके लिए देश को भौगोलिक और जनसांख्यकीय (Geographical & Demographical) विविधताओं के आधार पर पाँच क्षेत्रों में बांटा जाए० हरेक क्षेत्र में उनके पाए मतों के अनुपात में दलों को आनुपातिक कोटा की सीटें दी जाए० साथ ही हरेक दल के पास “बहुमत सर्वजय (FPTP)” से जीती हुई सीटें भी होंगी०  दोनों में प्रत्येक पद्धति से जीते हुए सदस्य को बराबर का अधिकारी और जनता के प्रति जिम्मेदार माना जाता है० कई देशों मे राष्ट्रीय स्तर पर दलों द्वारा प्राप्त मतों की पूर्ण आनुपातिकता  हासिल करने के लिए सदन की कुछ सीटें मतगणना के बाद बढ़ा भी दी जाती है०

“बहुमत सर्वजय (FPTP) पद्धति” में बहुधा एक से ज्यादा दल आपसी गठबंधन बना कर चुनाव लड़ते हैं० ये गठबंधन चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए बिखर या बदल भी जाते हैं० “आनुपातिक प्रतिनिधित्व (PR)” प्रणाली में जरूरी होने पर चुनाव के बाद कई दल मिलकर भी सरकार बनाते हैं० संसद पूरे कार्यकाल स्थिर रहती है पर सरकार बनाने के दल- समूह बदल भी सकते हैं० इस प्रणाली के विरोधी अपने अज्ञान के कारण एक दुष्प्रचार करते हैं कि आ० प्र० पद्धति शासन में अस्थिरता पैदा करती है० ऐतिहासिक तथ्य इस धारणा की पुष्टि नहीं करते०   

संविधान निर्माण के दौरान संविधान सभा में भारत में आनुपातिक प्रतिनिधित्व अंगीकार करने का प्रस्ताव आया था० उस पर लंबी बहस भी हुई थी० उसके दो दशक पहले मुस्लिम और दलित नागरिकों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डल (Separate Electorate) की मांग भी जोर शोर से उठी थी, जो एक समझौते के बाद छोड़ दी गई थी० आनुपातिक प्रतिनिधित्व अप्रत्यक्ष रूप में एक हद तक पृथक निर्वाचन मण्डलों जैसे अधिकार भी देता है० संभवतः उस समय हुए देश के त्रासद बंटवारे के कारण डॉ अंबेडकर सहित सभी संविधान निर्माता डर गए और उन्होंने आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अस्वीकार कर दिया०

भारत में “बहुमत सर्वजय (FPTP)” प्रणाली को बदल कर   आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली संसद के लिए कानून बनाने के रास्ते में कुछ प्रमुख अवरोध दीखते हैं०

1.  कानूनों के सफल बदलाव के लिए प्रस्ताव की पहल किसी वर्तमान संसद में सरकार और सत्ता पक्ष के सांसद ही कर सकते हैं० संविधान संशोधन के लिए बहुधा कुछ विपक्षी सांसदों का समर्थन भी अनिवार्य है० परंतु ये सारे सांसद (और राज्यों के विधायक भी) “बहुमत सर्वजय (FPTP)” पद्धति से ही चुन कर आए होते हैं० उस पद्धति के इस्तेमाल और दाव- पेंच में उनकी महारत होती है० नई प्रणाली आने से उनमे कइयों के लिए संसद पहुंचना असंभव या बहुत कठिन हो जाएगा० आनुपातिक प्रतिनिधित्व देश और सारी जनता के लिए ज्यादा लाभकारी है, यह जानते हुए भी वह पुराना नेतृत्व और उसके सारे समर्थक इस बदलाव का विरोध करेंगे०

2.  आम जनता को तो विभिन्न लोकतान्त्रिक पद्धतियों की जानकारी ही नहीं है० हमारी स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी उनपर कोई सामग्री नहीं रखी गई है० छपी और दृश्य मीडिया ज्यादा समय तात्कालिक राजनीतिक खेल और उठापटक दिखाती है या सत्ता प्रतिष्ठान की जी हुज़ूरी करती है० देश के बौद्धिकों, प्रोफेसरों, NGOs  और तथा कथित Think Tanks में भी संरचना (Structural) स्तर पर बदलाव में कोई रुचि और समझदारी नहीं हैं० साथ ही देश का अभिजात वर्ग आम जनता के सशक्तिकरण से डरता है० इसलिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली लाने के लिए इस सबों से किसी पहल की उम्मीद नहीं है०

3.  अभी संविधान मे लागू चुनाव क्षेत्रों के आरक्षित होने के कारण, उसके लाभुकों द्वारा आनुपातिक प्रणाली लाने के प्रस्ताव पर गलत भ्रम फैलाया जाएगा कि उन जमातों की  सुरक्षा को खतम किया जा रहा है०

चूंकि बहुतेरे देशों में चुनाव पद्धति के बदलाव हुए हैं इसलिए उम्मीद है कि देशहित में भारत में भी ऐसा होगा० इस लेख के प्रत्येक पाठक से मेरा अनुरोध है कि इस विषय पर अपने समूहों में व्यापक बहस चलाएं और जल्द ही इस लोकतान्त्रिक क्रांति को सफल बनाएं०      

पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वे इस विषय पर कुछ और प्रारम्भिक जानकारी के लिए निम्नलिखित दो संदर्भों को जरूर पढें०

1.  https://en.wikipedia.org/wiki/Proportional_representation

2.  https://hi.wikipedia.org/wiki/आनुपातिक प्रतिनिधान

 

इच्छुक पाठक निम्नलिखित दो सोशल मीडिया Id से जुड़कर इस विषय और मुहिम में सहयोग कर सकते हैं

1.  Facebook में- भारत में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मुहिम (Proportional Representation)

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-चन्द्र भूषण चौधरी
राँची, 25 फरवरी 2024
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